Saturday, October 4, 2014

अटाला भेला होरा है बस

एक सिद्ध आत्मा से मुलाकात हुई।  एक मित्र के साथ मिलने गया था।  फक्कड़ है , बेफिक्र है और निर्विचार है ( अविचार नहीं ) इसलिए सिद्ध है।  बात निकली तो बोलने लगे " अटाला भेला करके क्या मिलेगा " ( अटाला मतलब - कचरा और भेला करके मतलब इकट्ठा करके )।  चाहे जितना जोड़ लो सब कचरा ही तो है।  साल भर जितना अटाला इकट्ठा करते है दिवाली पर घर से बहार फेक ही देते है।  जिस दिन मन की दिवाली हो गयी उसदिन सब अटाला ही लगेगा। मन लाख दुखों में डूबा है , लेकिन एक चिलम का सुट्टा , एक पेग , एक मारिजुआना का शॉट और सब गायब , अगर तकलीफे वाकई इतनी गंभीर थी तो फिर एकाएक कहाँ चली गयी , समस्याए कंही नहीं गयी , बस मन की दिवाली हो गयी और सारा अटाला बाहर हो गया।

सारी समस्याए मन की है और सब इलाज़ मन में ही छुपे है।  मन के हारे हार है मन के जीते जीत।  लेकिन ये बड़ी ही सिंप्लिस्टिक व्याख्या है मन के विकारों और मन के विचारो की , ये सिंपल नहीं है।  मन पे काबू पाना ही तो सबसे बड़ा टास्क है , सक्सेस रेट बड़ा ही कम है।  रास्ता आसान  भी नहीं। भंगार से इतना प्यार है कि छोड़ने का दिल ही नही करता।जैसे  कई लोगो की आदत होती है , बेकार की चीज़े , पुराने कपड़े , फटे जूते , अखबार की रद्दी इकट्ठा किये जाते है , दराज़ो में, अलमारियों में , ताक पे रखते जाते है।  इतना कि खुद के रहने को जगह कम पढ़ जाए लेकिन फिर भी दिल नहीं भरता 'अटाला  भेला करने से " ।  फिर एक दिन रद्दी वाले को बुलाते है और उस से किलो -किलो का भाव करते है , उसकी तराज़ू  पे शक करते है।  पुराने कपड़ो के बदले स्टील के बर्तनो का बार्टर करते है। दो सो रूपए की अखबार की रद्दी और स्टील के दो कटोरे खरीद के खुद पे गर्व करते है की देखो मैंने रद्दी बेचकर कितना कुछ हांसिल कर लिया।  अगले दिन से खाली हुए दराज़ो , अलमारियों को फिर से भरने में लग जाते है।

बस अटाला ही तो भेला हो रहा है


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